Jaya is a simple housewife, she has deep faith in democracy. Whenever the Lok Sabha and Rajya Sabha elections come, she always expects the political parties to take maximum care of the public. Political parties talk a lot about populism, but after getting power, they become intoxicated. Due to the indifference of the political parties, he used to think that someday such a time would come, when the general public would be able to freely register their political presence?
You will find many people who think like Jaya, but can this happen in reality? In today's situation, is an ordinary person capable of registering a political presence independently? In today's situation, can a common man think of converting the actual term of democracy into reality?
The question is very simple, but in reality the answer is equally difficult and comprehensive. Democracy is not just an alliance or amalgamation of various electoral parties, it is also the other side. Democracy does not only give the right to vote to a common man, but it also gives him the right to become the representative of the public by registering his presence freely in this election phase.
But the truth is also that how many people in India are able to exercise this right today? Is every citizen of India capable of exercising this right? Does every person in India have the capability to become the representative of the people independently?
The answer to all these can be found in the books of the constitution of democracy in "yes", but the reality is many steps away, because it is a rare task for a common man to get the right of this democracy. While crying out for democracy, we have forgotten that in a democracy, as easy as voting rights is, on the contrary, it is equally difficult to become a people's representative.
Today, an ordinary person, leave alone becoming a public representative, cannot even think about it. Crores of rupees have started being required to become a public representative. Political parties spend crores and billions of rupees in every election season. In such a situation, it is a distant thing for a common man to be successful, but it is also difficult to participate.
Today, an ordinary person, leave alone becoming a public representative, cannot even think about it. Crores of rupees have started being required to become a public representative. Political parties spend crores and billions of rupees in every election season. In such a situation, it is a distant thing for a common man to be successful, but it is also difficult to participate.
This is the reason why democracy is now in the hands of only a few capitalists active in "party politics". Power keeps on being transferred from one active political capitalist to another active political capitalist, and the common man has become a slave of such capitalists.
Who would be such a person, who would bet crores of rupees only for the service and charity of the public? Some exceptions can be found, but they can be counted on the fingers. This is the reason why the form of democracy has remained limited to only a few "party politics". The participation of the common man in this has been limited only to the right to vote. Only capitalists play the real game. At his behest, the tricks of "check" and "mate" are done. In fact, in today's time, the "capitalist" is the "people's representative", and the "people's representative" is the "capitalist". There is an exception, but not enough for such a big country of India. Otherwise, a large part of so many people's representatives would not have been millionaires or billionaires.
Democracy should not become a toy of the capitalists, the only option is to end the system of "party politics" from the country. Elections should be fought without any party, without any "money-power". Campaigning of all the candidates should be done alternately by the government machinery only, independent campaigning should be completely banned, and the "Election Commission" should deal strictly with the person who violates it. Only then in the true sense, every common man will always be ready, ready and completely devoted to service, to become the watchdog of democracy, along with this, the common people will also understand the true meaning of democracy.
हिन्दी रुपांतरण
जया एक साधारण गृहणी है, लोकतंत्र में उसकी गहरी आस्था है। जब भी लोकसभा व राज्यसभा के चुनाव आते है, तो वह हमेशा राजनैतिक पार्टियों से यहीं उम्मीद रखती है, कि वह ज्यादा से ज्यादा जनमानस का ख्याल रखेगें। राजनैतिक पार्टियां लोकलुभावन बातें तो काफी करती है, पर सत्ता प्राप्ति के बाद वह मदमस्त हो जाती है। राजनैतिक पार्टियों की बेरुखी से उसे लगता, कि काश कभी कोई ऐसा समय भी आयेगा, जब आम जनमानस स्वतंत्रत रुप से अपनी राजनैतिक उपस्थित को दर्ज करा पायेगा ?
जया की तरह ऐसा सोचने वाले बहुत से लोग मिल जायेगे, पर क्या हकीकत में ऐसा हो सकता है ? क्या आज की परिस्थिति में एक साधारण व्यक्ति स्वतंत्रत रुप से राजनैतिक उपस्थित को दर्ज कराने लायक है ? क्या आज की परिस्थिति में एक आम व्यक्ति लोकतंत्र की वास्तविक शब्दावली को हकीकत में बदलने की सोच रख सकता है ?
प्रश्न बहुत सरल है, पर हकीकत में उत्तर देना उतना ही कठिन व व्यापक है। लोकतंत्र सिर्फ विभिन्न चुनावी पार्टियों का गठजोड़ या मेल नहीं है, बल्कि इसके इतर भी है। लोकतंत्र एक आम व्यक्ति को केवल मताधिकार का ही अधिकार नहीं देता, बल्कि वह उसे इस चुनावी दौर में स्वतंत्र रुप से अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हुए, जनता का प्रतिनिधि बनने का भी अधिकार देता है।
किन्तु सच्चाई यह भी है कि भारत में यह अधिकार आज कितने लोग उठाने में सक्षम है ? क्या भारत का हर नागरिक इस अधिकार को उठाने में सक्षम है ? क्या भारत का हर व्यक्ति स्वतंत्रत रुप से जनता का प्रतिनिधि बनने का माद्दा रखता है ?
इन सभी का उत्तर लोकतंत्र की संविधान की किताबों में तो "हां" में मिल सकता है, पर वास्तविकता कई कदम दूर है, क्योंकि एक आम जन साधारण मानस का इस लोकतंत्र के अधिकार को पाना ही दुर्लभ कार्य है। लोकतंत्र की दुहाई देते-देते हम यह भूल गये, कि लोकतंत्र में मताधिकार जितना आसान काम है, उसके उलट जन प्रतिनिधि बनना उतना ही मुश्किल है।
आज एक साधारण व्यक्ति, जन प्रतिनिधि बनना तो दूर की बात है, वह इस बारे में सोच भी नहीं सकता। जन प्रतिनिधि बनने के लिए करोड़ों रुपए की आवश्यकता पड़ने लगी है। राजनैतिक पार्टियां हर चुनावी समर में करोड़ों-अरबों रुपया खर्च कर देती है। ऐसे में एक आम साधारण व्यक्ति का सफल होना तो दूर की बात है, बल्कि भाग लेना भी मुश्किल होता है।
यहीं कारण है कि लोकतंत्र पर अब कब्जा सिर्फ चंद "पार्टी पालिटिक्स" में सक्रिय पूंजीपतियों के हाथों में है। सत्ता एक सक्रिय राजनैतिक पूंजीपति से दूसरे सक्रिय राजनैतिक पूंजीपति के हाथों में हस्तांतरित होती रहती है, और आम जनमानस ऐसे पूंजीपतियों का का दास बनकर रह गया है।
ऐसा कौन सा व्यक्ति होगा, जो करोड़ो अरबों रुपए का दांव सिर्फ जनता की सेवा व परोपकारिता के लिए करेगा ? कुछ अपवाद मिल सकते है, पर अंगुलियों पर गिनने लायक । यहीं कारण है कि लोकतंत्र का स्वरूप सिर्फ चंद "पार्टी पालिटिक्स" तक ही सीमित होकर रह गया है। जन साधारण व्यक्ति की इसमें भागीदारी सिर्फ मताधिकार तक ही सीमित रह गई है। असली खेल तो सिर्फ पूंजीपति खेलते है। उन्हीं के इशारे पर "शह" और "मात" की चालें चली जाती है। वास्तव में आज के समय में "पूंजीपति" ही "जन-प्रतिनिधि" है, और "जन-प्रतिनिधि" ही "पूंजीपति" है। अपवाद है, पर इतने बड़े भारत देश के लिए काफी नहीं है। अन्यथा इतने सारे जनप्रतिनिधि का एक बड़ा भाग करोड़पति या अरबपति न होता।
लोकतंत्र पूंजीपतियों का खिलौना न बने, इसका एक ही विकल्प है कि देश से "पार्टी पालिटिक्स" की व्यवस्था को ही समाप्त किया जाये। चुनाव बिना किसी पार्टी, बिना किसी "धन-बल" के लड़े जाये । सभी उम्मीदवारों का प्रचार-प्रसार सिर्फ सरकारी तंत्र द्वारा समान तरीके से बारी-बारी से किया जाये, स्वतंत्र रुप से प्रचार-प्रसार पर पूर्णतया पाबंदी लगे, व उलंघन करने वाले व्यक्ति के साथ "चुनाव आयोग" सख्ती से पेश आये। तभी सही मायने में हर जनसाधारण व्यक्ति लोकतंत्र का प्रहरी बनने को सदैव तैयार, तत्पर व सेवाभाव के लिए पूर्णतया समर्पण रहेगा, साथ ही आम जनमानस को लोकतंत्र का सच्चा अर्थ भी समझ में आयेगा।
No comments:
Post a Comment