#लोकतंत्र की परिभाषा
2014 में बीजेपी जब सत्ता में आई थी, उस समय उसने नारा दिया था, "सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास"। ये "नारा" सिर्फ चुनावी नारे तक ही सीमित रह गया, क्योंकि बीजेपी जब से सत्ता में आई, तभी से हिन्दू-मुस्लिम के नाम से समाज बंटने लगा, खोखले राष्ट्रवाद की ऐसी घुट्टी पिलाई जाने लगी, कि लोग पार्टी का समर्थन करने को ही राष्ट्रहित समझने लगे, व पार्टी के विरुद्ध बोलने वाले को देशद्रोही तक की संज्ञा दी जाने लगी।
बात यहीं तक थम जाती, तो अच्छा होता। कहा गया है, कि जब सत्ता मिलती है, तो सत्ता की हनक भी आ ही जाती है। अब सत्ताधारी बीजेपी चाहती है कि जनता जनार्दन सिर्फ उसका महिमा मंडन ही करें, कोई आलोचना न करें, यदि वो ऐसा करती है, तो पार्टी उसे सहन न करेगी, फिर वो चाहे कोई भी व्यक्ति क्यों न हो। पार्टी की छवि बनाये रखने के लिए यदि सामने वाले की दुर्गति भी करनी पड़े, तो वो पीछे नहीं हटेगी।
हाल ही में इसकी बानगी देखने को भी मिली, जब कांग्रेस प्रवक्ता पवन खेरा, गायिका नेहा सिंह राठौर व बीबीसी के दफ्तर पर जो कानूनी कार्यवाहियां हुई, वो सत्ता के दंभ को बखूबी प्रदर्शित करती है। इसके अलावा इनसे मिलते-जुलते उदाहरण भी मिल जायेगें।
अब जो घटनाक्रम चल रहा है, या घट रहा है, उससे जनता के बीच यह कशमकश बनी हुई है कि ये लोकतंत्र है, या हिटलर तंत्र ? संविधान ने हर व्यक्ति को अभिव्यक्ति की आजादी दी है, पर ऐसा लगता है कि आज वो सिर्फ किताबीं ज्ञान बनकर ही रह गयी हैं।
सरकार कोई सी भी हो, यदि वो देश के नागरिक को कुछ कहने पर ही पहरा बैठा दें, या सिर्फ अपने महिमा मंडन पर ही बोलने की इजाजत दें, तो यह हरगिज लोकतंत्र की परिभाषा में नहीं आता है।
आज जो कुछ बीजेपी कर रही है, क्या आपको लगता है, कि आने वाली सरकारें इसके विपरीत चलेंगी ?जी नहीं, ऐसा कदापि न होगा, बल्कि वो आने वाले समय में बीजेपी के हिटलर तंत्र से भी बड़ी रेखाएं खींचने की कोशिश करेगी, और आम जनमानस इसी भ्रम को पाले रहेगा, कि शायद यहीं लोकतंत्र है।
बीजेपी भी जब विपक्ष में थी, तो उसकी आवाज जनता की आवाज महसूस होती थी, पैट्रोल, डीजल व गैस सिलेंडर पर आवाज उठाकर उसने जनता की खूब सहानुभूति बटोरी थी, और इसी दम पर तो वो सत्ता में काबिज भी हुई। पर हुआ क्या ? सत्ता प्राप्त करते ही यह भी अन्य सरकारों की तरह निरंकुश क्यों बन गई ? अपनी मनमानी करने पर क्यों उतर आई ?
यही हाल कल की सत्तापक्ष और आज की विपक्ष कांग्रेस का है। पर ये आवाज़ उस समय क्यों गुम थी, जब ये सत्ता पक्ष में थी ? क्यों विपक्ष, सत्ता पक्ष में पहुंचते ही अपना चोला बदल लेता है ? क्या ये लड़ाइयां जनता के लिए ही लड़ी जाती है, या सिर्फ सत्ता को पाने भर के लिए ?
दुर्भाग्य देखिए, यह खेल जनता की आंखों में धूल झोंककर काफी समय से खेला जा रहा है, पर जनता इस खेल को समझ ही नहीं पा रही है। जिन पर सरकार का चाबुक चल रहा है, वह रो रहे है, और जिनको बोलना चाहिए, वो या तो खामोश है, या सरकार के पाले में बैठकर भक्त मंडली बनकर तालियां बजा रहे है, बिना यह जाने कि कल जब उनकी बारी आयेगी, तब कोई विरोध नहीं करेगा, बल्कि उनकी भी वेबशी पर तमाशबीन तालियां ही पीटेंगे।
सरकार के हर फैसले पर तालियां पीटने वाले, तालियां पीटने से पहले यह भी तय कर लें, कि वो लोकतंत्र को जिंदा रखने के पक्षधर है भी, या नहीं ? क्योंकि तालियां बजाने वाले कल बेवशी के आंसू नहीं रोयेंगें, यह जरूरी नहीं।
किसी भी सरकार के लिए भक्त मंडली की उपयोगिता सिर्फ शतरंज के प्यादे की भांति रहती है। जब तक ज़रुरत है, तब तक ही उनका उपयोग होता है। बिना जरूरत के तो ये अपनो को भी दूध की मक्खी की तरह निकाल देते है। हाल का ही उदाहरण है , बीजेपी सरकार ने अपनी ही साथी प्रवक्ता "नुपूर शर्मा" के एक वयान देने पर अपने हाथ खींचते हुए अपना पल्ला झाड़ लिया था, तो समझ लीजिए, भक्त मंडली को कितना भाव मिलेगा ?
जनता को अपनी ही चुनी सरकार से उत्पीड़ित होने की लत लगने लगे, तो आने वाले समय में लोकतंत्र की परिभाषा भी बदलने की जरूरत पड़ेगी।
यहां मेरा आशय किसी भी सरकार के विरुद्ध कोई विद्रोह करने का मंतव्य नहीं है, बल्कि सरकार द्वारा लोकतंत्र के विरुद्ध कदम उठाने पर एक सतर्क प्रहरी की भांति आवाज उठाने भर का है, गलत को गलत, व सही को सही कहने का है, फिर भी यदि कोई सरकार हठधर्मिता पर उतर आये, तो उसे सबक सिखाते हुए लोकतंत्र की सबसे बड़ी चोट देकर सरकार को सत्ता विहीन करने का है।
अंग्रेजी रुपांतरण
When the BJP came to power in 2014, its slogan was "Sabka Saath, Sabka Vikas, Sabka Vishwas". This "slogan" was limited only to election slogans, because ever since BJP came to power, society started dividing in the name of Hindu-Muslim, hollow nationalism was fed such a way that people were forced to support the party. They started understanding the national interest, and those who spoke against the party were even labeled as traitors.
It would have been better if the matter had stopped here. It has been said that when you get power, you also get the hankering for power. Now the ruling BJP wants the public Janardan to only glorify him, not criticize him, if he does so, the party will not tolerate him, no matter who the person may be. To maintain the image of the party, even if it has to cause misery to the person in front, it will not back down.
Recently its hallmark was also seen, when the legal proceedings that took place on Congress spokesperson Pawan Khera, singer Neha Singh Rathore and BBC office, it shows the arrogance of power very well. Apart from this, similar examples will also be found.
Due to the events going on or happening now, there is a dilemma among the public whether it is democracy or Hitler's system? The constitution has given freedom of expression to every person, but it seems that today it has remained only as bookish knowledge.
Irrespective of the government, if it keeps the citizens of the country on guard only when they say something, or allows them to speak only for their glorification, then it does not come under the definition of democracy.
Whatever BJP is doing today, do you think that the coming governments will run opposite to it? The public will continue to cherish this illusion, that perhaps democracy is here only.
When the BJP was also in the opposition, its voice was felt to be the voice of the public, by raising its voice on petrol, diesel and gas cylinders, it gained a lot of sympathy of the people, and on this basis, it also came to power. But what happened? Why did it become autocratic like other governments as soon as it got power? Why did you stoop to doing your own thing?
Same is the condition of yesterday's ruling party and today's opposition Congress. But why was this voice missing when it was in the ruling party? Why does the opposition change its clothes as soon as it reaches the ruling party? Are these battles fought only for the public, or just to get power?
See unfortunately, this game is being played for a long time by throwing dust in the eyes of the public, but the public is not able to understand this game at all. Those who are being lashed by the government are crying, and those who should speak, are either silent, or are clapping like a group of devotees sitting in the government's court, without knowing that tomorrow when their turn will come, then No one will protest, but only spectators will clap on their website.
Those who clap on every decision of the government, before clapping, also decide whether they are in favor of keeping democracy alive or not? It is not necessary because those who clap will not cry helpless tears tomorrow.
For any government, the usefulness of the devotee group remains just like a pawn in chess. They are used only as long as they are needed. Without need, they drive out their own people like milk flies. The recent example is, the BJP government had waved its hands on a statement made by its own fellow spokesperson "Nupur Sharma", so understand, how much will the devotee group get?
If the public gets used to being oppressed by their own elected government, then there will be a need to change the definition of democracy in the coming times.
Here my intention is not to rebel against any government, but to raise my voice like a watchdog when the government takes steps against democracy, to say wrong to wrong, and right to right, yet If a government comes down on dogma, then by giving the biggest injury to democracy while teaching it a lesson, the government has to be deprived of power.
Thanks.
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