सर्द मौसम था, रात्रि 10 बज रहे थे। भोजन करने के पश्चात सोचा, चलो कुछ देर टहल ही आते है, यह सोच कर मैं घर से बाहर निकल पड़ा । अभी टहलते हुए थोड़ी ही दूर पहुंचा था, कि सहसा मुझे किसी महिला के जोर-जोर से विलाप करने की आवाज सुनाई दी। मैं किसी अनहोनी की आंशकावश उस दिशा की तरफ तेज रफ्तार से चल पड़ा। जैसे-जैसे मैं उस दिशा की ओर बढ़ रहा था, मुझे रोने के साथ-साथ किसी अन्य महिला के हंसने की भी आवाज सुनाई दे रही थी। मैं असंमजस की स्थिति में लगातार उस ओर बढ़ता जा रहा था।
दोनों आवाजें सड़क के चौराहे के पास से आ रही थी, तेज कदमों से जब मैं मौके पर पहुंचा, तो देखता हूं कि एक महिला जो कि काफी दयनीय अवस्था की दिखाई पड़ रही थी, एक बड़े से पत्थर पर बैठी हुईं तेज आवाज में रो रही थी। वहीं उसके निकट एक अन्य सशक्त महिला भी खड़ी हुई थी, जो मुझे देखने से हिन्दी फिल्म की खलनायिका से कम नहीं लग रही थी। सशक्त महिला उस दयनीय महिला को देखकर जोर-जोर से हंस रही थी। जिस कारण रोने व हंसने का घालमेल पैदा हो रहा था।
मैंने यह भी देखा कि दयनीय महिला ने अपने सिर पर एक ताज पहन रखा था, जिसे वह दोनों हाथों से पूरी शक्ति से कसकर पकड़ें हुये थी, परन्तु वह दुष्ट महिला उसके सिर से वह ताज जबरदस्ती छीनने का प्रयास कर रही थी, साथ ही राक्षसीं अंदाज में हंसती भी जा रही थी। दयनीय महिला भरपूर चेष्टा कर रही थी, कि वह ताज उसके सिर से वह दुष्ट महिला न छीन पाये।
मैं उस दुष्ट महिला की दुष्टता देखकर उस दयनीय महिला के पास पहुंचा, और उससे पूछा कि -- कौन है आप ? क्यों रो रही हो ? और यह महिला आपके सिर से ताज को क्यों छीनना चाह रही है ?
मेरे एक साथ कई प्रश्नों को सुनकर वह दयनीय महिला का रोना थोड़ी देर में सिसकियों में बदल गया, कुछ देर चुप रहने के पश्चात वह मुझसे बोली, आप जानना चाहते है कि मैं कौन हूं ? तो गौर से सुनिए मैं आप लोगों की राष्ट्रभाषा "हिन्दी" हूं। आज आप जैसी भी हालत मेरी देख रहे है, इस हालात तक मुझे पहुंचाने वाले कोई गैर नहीं, बल्कि मेरे ही अपने ही वतन के लोग है।
यह जो दूसरी महिला जो आप देख रहे है, यह "ENGLISH" है। इसे ये लगता है कि जो ताज मैं पहने हुए हूं, उस ताज पर मेरा अब कोई अधिकार नहीं रहा है। पर इसे नहीं मालूम है कि ये ताज ही तो मेरा इनाम है, मेरी शान है। अब ये इसे जबरदस्ती हासिल करने पर उतारू है। परन्तु मैं भी जीते-जी हरगिज ऐसा नहीं होने दूंगी।
ये ताज ही मेरा वजूद है। आजादी के बाद 14 सितंबर 1949 को जिस समय यह ताज मेरे सिर पर रखा गया, मैं फूली नहीं समा रही थी, मेरे पांव धरती पर नहीं थे। कुछ विवाद भी रहे, कि मैं "राष्ट्रभाषा" नहीं, अपितु सिर्फ "राजभाषा" हूं, पर इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ा। मुझे भला अपनी अन्य भारतीय भाषा बहिनों के साथ रहने में क्या दिक्कत ?
दिल पर चोट तो मुझे उस समय लगी, जब मेरे ही देशवासियों ने मुझे "अंग्रेजी" के सामने मुझे दोयम दर्जे का स्थान देना शुरू कर दिया। जहां मैं फली-फूंली, उसी देश के वाशिंदों ने मुझे "हिन्दी सप्ताह" तक जिस तरह सीमित कर दिया, यह बात मेरे दिल को हर वर्ष छलनी करती रही। यहीं कारण है कि आज "अंग्रेजी" के हौसले बुलंद है। आज वह मेरा ताज जो मेरा सम्मान भी है, मुझसे छीन लेना चाहती है। मैं नहीं कह सकती, कि मैं कब तक अपने सम्मान की रक्षा कर सकूंगी।
सारी बातें सुनने के पश्चात मेरा मन निराशा से भर उठा। उस दिन न तो मैं कुछ कर सका, और न ही मैं अपनी राष्ट्रभाषा को कोई समुचित उत्तर दे सका। बस घर वापिस लौट चला।
रास्ते भर सोचता आया, कि जो बीत गया, सो बीत गया, क्या हमारी भाषा इतनी अशक्त है, कि उसकी पहचान के लिए अपने ही देश में हमें "हिन्दी पखवाड़ा" चलाना पड़े ? क्या कभी आने वाले समय में हम सभी मिलकर अपनी "हिन्दी भाषा" को उसकी अपेक्षानुरूप उसका सम्मान दिलाने में सफल हो पायेंगें? या हम संस्कृत भाषा की तरह इसके भी धीरे-धीरे विलुप्त का इंतजार भर कर रहे है।
संदीप।
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